औरों से आसक्ति

 

    वह सब जो मानव सम्बन्धों पर आधारित है अस्थिर, क्षणभंगुर मिश्रित और असन्तोषजनक है । केवल वही जो भगवान् पर आधारित और भगवान् के द्वारा है वही स्थायी हो सकता और सन्तोष दे सकता है ।

२१ जुलाई, १९३५

 

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    मुझे विश्वास है कि तुम्हारी सत्ता के सचेतन भाग में ''क'' के साथ तुम्हारा सम्बन्ध वैसा ही है जैसा तुम कहते हो लेकिन आदमी को हमेशा अवचेतना के बारे में बहुत सतर्क रहना चाहिये इसीलिए हमेशा यह वांछनीय है कि [...] दोस्ती या सम्बन्ध न रखे जायें क्योंकि अवचेतन प्राण में ऐसे गठबन्धन हो जाते हैं जो साधना में बाधा बनते हैं ।

 

    मेरे प्रिय बालक, मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

 

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    ऐसी मित्रता जो कामना और आसक्ति से मुक्त हो, आदर्श समाधान हो सकती है लेकिन इसे निभाने के लिए अपने ऊपर पूर्ण संयम और प्राण और शरीर पर अटल अनुशासन की जरूरत है । और चूंकि अभी ऐसी अवस्था नहीं है इसलिए ज्यादा अच्छा यही है कि शैतान को प्रलोभन न दो और सम्बन्ध बिलकुल काट दो ।

 

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    ऐसा समय था जब तुम बहुत संवेगाकुल थे और तुम्हारा स्नेह तुरन्त संवेगों और उनसे सम्बद्ध असन्तुलन में जा गिरता था ।

 

     लेकिन अब तुम अधिक संयत हो और निःसन्देह अधिक स्थिर और अचंचल हो । वह दिन आयेगा जब कोई आसक्ति न रहेगी । बनी रहेगी ज्योतिर्मयी मधुर सहानुभूति जिसमें न कोई मांग होगी न अहंकार ।

 

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     सब कुछ आकर्षण के प्रकार पर निर्भर है ।

 

     अगर यह भौतिक आकर्षण है, पाशविक वृत्ति की आवश्यकता है जो प्रजनन की ओर धकेलती है तो सबसे अच्छी बात यह है कि तुम इस जगह को छोड़ दो और ''क'' को फिर कभी न मिलो । इसका मतलब होगा कि इस व्यक्ति का प्रभाव तुम्हारे अन्दर निम्नतर वृत्तियों को जगाता और प्रोत्साहित करता है ।

 

    अगर यह प्राणिक आकषण है तो घनिष्ठ सम्बन्ध से बचते हुए एक मकान में रहते हुए जितना सम्बन्ध अनिवार्य है उससे अधिक को काटकर सम्बन्ध को पवित्र करने और वश में रखने का प्रयत्न कर सकते हो ।

 

   अगर यह भावुकतापूर्ण और संवेदनशील आकर्षण है तो अपने सम्बन्ध को भगवान् की और आध्यात्मिक जीवन की सम्मिलित खोज तक सीमित रखते हुए उसे उनकी ओर मोड़ना ज्यादा आसान है ।

 

    तब सब कुछ तुम्हारी सचाई ओर पारस्परिक सद्‌भावना पर निर्भर होगा ।

 

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    मैं तुम्हारी स्पष्टवादिता और सचाई की बहुत सराहना करती हूं । यह सच है कि किसी घनिष्ठ मानव-सम्बन्ध को प्राणिक मिश्रण से मुक्त रखना बहुत अधिक कठिन है । लेकिन ऐसे सम्बन्धों को काटना उपाय नहीं है बल्कि सदैव जाग्रत् रहना (चौकन्ना रहना) और प्राणिक आकर्षण को अपनी क्रियाओं पर शासन नहीं करने देना है ।

२९ अगस्त, १९५०

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     अपने-आपको समस्त मानव आसक्तियों से मुक्त रखो और तुम सुखी रहोगे ।

६ जून, १९५४

 

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     याद करते रहना आसक्ति का खतरनाक साथी है ।

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    अभी के लिए ज्यादा अच्छा है कि चुपचाप रहो और अपने आन्तरिक विकास पर ही ध्यान दो । बाद में, जब तुम अनुभव करो कि आसक्ति का लवलेश भी नहीं रहा तो तुम सहज रूप से, बिना किसी कठिनाई के पत्र-व्यवहार शुरू कर सकते हो । वह उपयोगी और लाभदायक होगा । लेकिन नियम यह है कि जो तुम औरों को देना चाहते हो उसे पहले अपने अन्दर चरितार्थ करो ।

१७ अप्रैल, १९५६

 

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    अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ आसक्ति से छुटकारा पाने के लिए परिस्थितियों का लाभ उठाओ ।

 

    तुम्हें यह सीखना चाहिये कि श्रीअरविन्द को और मुझे छोड़कर अब तुम्हारे कोई भाई, बहन, मां, बाप नहीं हैं, और उन्हें चाहे जो कुछ होता रहे उसका तुम्हारे साथ कोई सम्बन्ध न होना चाहिये, तुम्हें मुक्त अनुभव करना चाहिये । हम ही तुम्हारा समस्त परिवार, तुम्हारा संरक्षण और तुम्हारे सर्वेसर्वा हैं ।

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